आज तो मुझे भी समझ नहीं आ रहा कि मैं बात को शुरू कहाँ से और कैसे करूँ। शायद ये भी हो सकता है, दिमाग में कुछ और, हम कहना कुछ और चाहते है। ठीक उसी प्रकार हम कहना कुछ और चाहते है और कह कुछ और जाते है। हमारी लिखाबट और अल्फ़ाज़ दोनों में अलग भावनाएं होती है। लिखाबट से हम अपने विचार तो व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन भावनाओं को जाहिर नहीं कर सकते हैं। और अगर सब ठीक होता है, तो फिर सबकुछ सामने वाले व्यक्ति जिसके साथ आपने अपने विचार व्यक़्त किए है। ये भी निर्भर करता है, कि वो किस स्थिति में है, क्या सोच रहें है, या क्या समझ रहें है, यह भी बहुत माईने रखता है। हमारी आम ज़िंदगी में बहुत से किस्से होते रहते है, हमें उनसे सीख भी मिलती है। और कई बार हम भी बहुत ढ़ीट होते है, कि सुधारना ही नहीं चाहते है। इस बीच इन बातों के अनचाहें अंजाम भी नज़र आते है। न समझी के कारण बहुत से मसले भी खड़े हो जाते है। उन मसलो का हल ख़ामोश बैठ जाने से नहीं होता है। उनको सुलझाने के लिए हमें बातचीत का सिलसिला रखना चाहिए और जो भी खामियां हुई है,...
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