यह शायरी मूल रूप से कवि आबी मख़नवी द्वारा प्रस्तुत की गई थी। इस पोस्ट का उद्देश्य साहित्यिक संवेदनाओं को साझा करना है, न कि किसी कॉपीराइट का उल्लंघन। सभी अधिकार मूल लेखक को समर्पित हैं।
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- ✍️ कवि: आबी मख़नवी (Aabi Makhnavi)
यह शायरी एक बूढ़े बाबा और उनके पोते के बीच हुए संवाद को बेहद मार्मिक अंदाज़ में प्रस्तुत करती है। नीचे पढ़ें पूरी शायरी:
बाबा जानी करवट लेकर
हल्की सी आवाज़ में बोले
बेटा, कल क्या मंगल होगा?
गर्दन मोड़े बिन मैं बोला बाबा, कल तो बुद्ध का दिन है
बाबा जानी सुन ना पाए?
फिर से पूछा, कल क्या दिन है?
थोड़ी गर्दन मोड़ के मैंने
लहजे में कुछ ज़हर मिलाकर
मुंह को कान की सीध में लाकर दहाड़ के बोला,
"बुद्ध है बाबा, बुद्ध है बाबा"
आँखों में दो मोती चमकते
सूखे से दो होंठ भी लरजे
लहजे में कुछ शहद मिलाकर
बाबा बोले,
"बैठो बेटा, छोड़ो दिन को,
दिन है पूरे,
मुझमें तेरा हिस्सा सुन लो,
बचपन का एक क़िस्सा सुन लो"
यही जगह थी, मैं था, तुम थे
तुमने पूछा, रंग-बिरंगी फूलों पर उड़ने वाली
इसका नाम बताओ बाबा?
गाल पे प्यार से बोसा देकर मैंने बोला, "तितली बेटा"
तुमने पूछा, "क्या है बाबा?"
फिर मैं बोला, "तितली बेटा"
तितली-तितली कहते सुनते एक महीना पूरा गुज़रा
हर इक नाम जो सीखा तूने
कितनी बार वो पूछा तूने
तेरे भी तो दांत नहीं थे
मेरे भी अब दांत नहीं हैं
बातें करते करते तू तो थक के गोद में सो जाता था
तेरे पास तो बाबा थे ना
मेरे पास तो बेटा है ना
बूढ़े से इस बच्चे के भी बाबा होते...
तो सुन भी लेते...
तेरे पास तो बाबा थे ना
मेरे पास तो बेटा है ना...
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